शनिवार, 3 मई 2014

  

              गाँव 

छोड़ शहर की  गंदी छाया -माया,
पाने को प्रकृति की सुन्दर छाँव 
पकड़ा पथ जो जाती   गाँव 
नहीं  मिला पहले जैसा भाव 
चौड़ी-चौड़ी गालियाँ सँकरी 
हाव -भाव से लगते जैसे शहरी 
बरबस भव मन में उमड़े 
थोड़ी सी धूल  उड़े 
नहीं मिला जब ,मन व्यथित हुआ 
तब से  तन को समीर का  झोंका छुआ 
उड़  थे पॉलिथीन के कचड़े 
मुझे दिखे कुछ ग्रामीण  तन से अकड़े 
हाथों में सुन्दर कुत्ते,सिकड़े  से जकड़े 
सिमटे -सिमटे से खेत बाग़                                                       विवेक वीरेंद्र पाठक 
चहुँ दिश शहरीकरण की  आग 
चहुँ दिश गाड़ी मोटर की धूल 
मुरझाए -मुरझाए से कनेर के फूल 
पत्तियाँ दिख रही थी जैसे शूल 
लगता था जैसे मैं गया ग्राम पथ भूल 
मानस पटल पर उभरने लगी स्मृतियाँ 
याद आने लगी गाँव की पुरानी गलियाँ 
सुन्दर सी गाँव की अमराई 
साँझ पहर द्वार पर चारपाई
द्वार पर हरित नीम का पेड़ 
विहगों के सुन्दर से नीड़ 
बबुआ भइया की लुप्त पुकार 
नहीं मिला कहीं संयुक्त पुकार 
भाई-चारे ,अखंडता के भाव 
खंडित हो पनपे थे दुर्भाव