हे कृषक ! तुम वीर ,धीर ,
पर गरीब हो ।
तेरी मजबूरियों ,भावनाओं को ,
जानता ,पहचानता हूँ ॥
अजब सी कर्म शक्ति ,
पर गरीब हो ।
तेरी मजबूरियों ,भावनाओं को ,
जानता ,पहचानता हूँ ॥
अजब सी कर्म शक्ति ,
मन में अदम्य साहस ,
कभी दैवीय आपदाओं का शिकार ,
कभी मानवीय प्रताड़नाओं का,
अंश पर भरण -पोषण का भार ,
लिए जा रहे हो निरंतर ,
शैलेन्द्र भाँति जुर्रत ,
सिर ऊँचा किए ,
प्रमुदित चले जा रहे हो ।
करते हो दुर्बोध श्रम ,
पर देता न प्रारब्ध साथ ।
दिन हो या रात ,
धूप हो या छाँव
करते हो अनवरत श्रम ।
ये कृषक महान हो ,
देश के कर्णाधार हो ।
तुम पूज्यमान हो ,
भारत की शान हो ॥
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें